Q. श्रम विभाजन और जाति प्रथा ‘ पाठ का सारांश लिखें ।
उतर : – आज के युग में भी जाति -प्रथा की वकालत सबसे बड़ी बिडंबना है । ये लोग तर्क देते हैं कि जाति प्रथा श्रम विभाजन का ही एक रूप है । ऐसे लोग भूल जाते हैं कि श्रम – विभाजन श्रमिक – विभाजन नहीं है । श्रम – विभाजन निस्संदेह आधुनिक युग की आवश्यकता है , श्रमिक विभाजन नहीं । जाति – प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन और इनमें ऊँच – नीच का भेद करती है । वस्तुत : जाति – प्रथा को श्रम विभाजन नहीं माना जा सकता क्योंकि श्रम विभाजन मनुष्य की रूचि पर होता है , जबकि जाति – प्रथा मनुष्य पर जन्मना पेशा थोप देती है । मनुष्य की रूचि – अरूचि इसमें कोई मायने नहीं रखती । ऐसी हालत में व्यक्ति अपना काम टालू ढंग से करता है , न कुशलता आती है न श्रेष्ठ उत्पादन होता है । चूँकि व्यवसाय में , ऊँच – नीच होता रहता है , अतः जरूरी है पेशा बदलने का विकल्प । चूँकि जाति – प्रथा में पेशा बदलने की गुंजाइश नहीं है , । इसलिए यह प्रथा गरीबी और उत्पीडन तथा बेरोजगारी को जन्म देती है । भारत की गरीबी और बेरोजगारी के मुल में जाति – प्रथा ही है । अतः स्पष्ट है कि हमारा समाज आदर्श समाज नहीं है । आदर्श समाज में | बहविध हितों में सबका भाग होता है । इसमें अवाध संपर्क के अनेक साधन एवं अवसर उपलब्ध होते हैं । लोग दूध – पानी की तरह हिले – मिले रहते हैं । इसी का नाम लोकतंत्र है । लोकतंत्र मूल रूप से सामूहिक जीवन – चर्या और सम्मिलित अनुभवों के आदान प्रदान का नाम है
Q. लेखक किस विडंबना की बात करते हैं ? विडंबना का स्वरूप क्या है ?
उतर : – डॉ . भीमराव अंबेदकर ने ‘ जातिवाद के पोषकों को विडंबना की बात कहकर संबोधित किया है । ‘ जातिवादी विडंबना के स्वरूप ‘ की चर्चा लेखक ने अपने शोधपरक लेख में करते हुए उसपर सटीक प्रकाश डाला है । ‘ जातिवाद ‘ के जो लोग पोषक वे इसका समर्थन कई आधार पर करते हैं
(i ) कुछ लोगों का कहना है कि आधुनिक ‘ सभ्य समाज ‘ ‘ कार्य कुशलता ‘ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है । जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है , इसी कारण इसमें कोई बुराई नहीं है । लेकिन इसमें जाति प्रथाश्रम विभाजन के साथ – साथ अमिक विभाजन को भी रूप लिए हुए है ।
( ii ) भारत की जाति प्रथा की दूसरी विडंबना यह है कि यह श्रमिकों का अस्वभाविक विभाजन ही नहीं करती , बल्कि विभाजित वर्गों को एक – दूसरे को अपेक्षा . ऊंच नीच भी करार देती है , जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता ।
( iii ) भारत की जाति प्रथा की तीसरी विडंबना यह है कि मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किये बिना दूसरे हो दृष्टिकोण जैसे माता – पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार , पहले से ही अर्थात् गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है ।
( iv ) चौथी विडंबना यह है कि जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवनभर के लिए एक पेशे में बाँध देती है भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह मूखों मर जाय ।
( v ) पाँचवीं विडंबना यह है कि हिन्दू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है , जो उसका पैतृक पेशा न हो भले ही वह उसमें पारंगत हो । इस प्रबार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है ।
Q. जातिवाद ‘ के पोषक उसके पक्ष में क्या तर्क देते हैं ।
उतर : – जातिवाद के पोषक ‘ जातिवाद ‘ के पक्ष में अपना राम देते हुए उसकी उपयोगिता को सिद्ध करना चाहते हैं
( i ) जातिवादियों का कहना है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता ‘ के लिए मन बिभाजन को आवश्यक मानता है क्योंकि श्रम विभाजन भाति प्रथा का ही दूसरा रूप है । इसीलिए श्रम विभाजन में कोई बुराई नहीं है ।
( ii ) जातिवादी समर्थकों का कहना है कि माता पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार ही यानी गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है ।
( iii ) हिन्दू धर्म पेशा परिवर्तन की अनुमति नहीं देता । भले ही वह पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त ही क्यों न हो । भले ही उससे भूखों मरने की नौबत आ जाए लेकिन उसे अपनाना ही होगा ।
( iv ) जातिवादियों का कहना है कि परंपरागत पेशे में व्यक्ति दक्ष हो जाता है और वह अपना कार्य सफलतापूर्वक संपन्न करता है ।
( v ) जातिवादियों ने ‘ जातिवाद ‘ के समर्थन में व्यक्ति की स्वतंत्रता को अपहृत कर सामाजिक बंधन के दायरे में ही जीने – मरने के लिए विवश कर दिया है । उनका कहना है कि इससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहती है और अराजकता नहीं फैलती ।
Q. जातिवाद के पक्ष में दिए गये तर्कों पर लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं ?
उतर : – ‘ जातिवाद ‘ के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक ने कई आपत्तियाँ उठायी हैं जो चिंतनीय है
( i ) लेखक के दृष्टिकोण में जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है ।
( ii ) जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं करता ।
( iii ) मनुष्य की व्यक्तिगत भावना या व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान या महत्त्व नहीं रहता ।
( iv ) आर्थिक पहलू से भी अत्यधिक हानिकारक जाति प्रथा है ।
( v ) जाति प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा रुचि व आत्मशक्ति को दबा देती है । साथ ही अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय भी बना देती है ।
Q. जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है ?
उतर : – हिन्दू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है , जो उसका पैतृक पेशा नहीं हो , भले ही वह उस पेशा में पारंगत हो । इस कारण पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है ।
Q. सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओं को आवश्यक माना है ?
उतर : – डॉ . भीमराव अंबेदकर ने सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए निम्नांकित विशेषताओं का उल्लेख किया है
( i ) सच्चे लोकतंत्र के लिए समाज में स्वतंत्रता , समानता और भ्रातृत्व भावना की वृद्धि हो ।
( ii ) समाज में इतनी गतिशीलता बनी रहे कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचालित हो सके ।
( iii ) समाज में वहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिए और सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए ।
( iv ) सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए ।
( v ) दूध – पानी के मिश्रण की तरह भाईचारा होना चाहिए ।
इन्हीं गुणों या विशेषताओं से युक्त तंत्र का दूसरा नाम लोकतंत्र है । T ” लोकतंत्र शासन की एक पद्धति नहीं है , लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान – प्रदान का नाम है । इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान भाव हो । “
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